Gathua bhari hai!

आज ऐसे ही मन हुआ की सरिता को देख आऊं, कई दिनों पहले सुना था की काफी बीमार है. मैं अक्सर लोगों को उनकी बीमारी की हालत में तुरंत देखने नहीं जाती हूँ. बचपन में ही माँ ने समझाया था की बीमार और उसका परिवार पहले ही परेशानी और संक्रमण से गुजर रहे होते हैं फिर आप भी पहुँच जाओगे तो और दुविधा में पड़ जाते हैं. तो उस बात का पालन अब तक कर रही हूं.

खैर सरिताजी का घर हमारे घर से थोड़ी दूर ही है. पैदल ही चल दी, रस्ते से थोड़े से फ़ल खरीदे की खाली हाथ क्या जाऊँ? उनका घर बेहद छोटा पर सुबिधाओं से भरपूर है.पति शिवराज किसी बैंक के बेहद ऊँचे पद से रिटायर होके ये घर बनवा के इस अच्छी और महंगी कॉलोनी में आ बसे थे. नीचे एक ड्राइंग रूम, किचन, बाथरूम और बैडरूम था ऊपर की मंज़िल पर तीन कमरे थे जिनमें बड़ा बेटा बहु, छोटा बेटा और एक नौकर रहते थे. और उसके ऊपर की छत पर उनके कई सारे पेड़ पौधे लगे थे, कपडे आदि सुखाये जाते थे.

सारा परिवार सबसे नीचे की मंज़िल पर ही पूरा दिन बिताता था. रात होने पर ही निचली मंज़िल पर शांति चाय रहती थी. सरिता जी पति के घुटनों के दर्द की वजह से नीचे ही रहने लगी थीं.

सरिताजी के घर गयी तो नौकर ने दरवाज़ा खोला और मुझे उनके कमरे में जाने को कहा. बड़ी खुश हो गयीं वो मुझको देखकर. बोलीं “तुम्हारी उम्र लम्बी है, अभी तुम्हारे घर के आगे से आ रही हूँ. कुछ टेस्ट्स करवाने थे पर आज डॉक्टर नहीं आये थे तो जल्दी वापस आ गयी. घर में अभी खाना भी नहीं बना है.”. मैंने पपीता और केले से भरा पैकेट उनको पकड़ा दिया. वो बड़ी खुश हो गयीं. बोलीं भी “वह आज तो मन हो रहा था की कुछ अच्छा सा मीठा सा फल खा लूँ”. फिर अपने नौकर को आवाज लगाके उन्होंने उसे फटाफट फ्रूट चाट बना लाने को कहा. पर वो बोला की अभी थोड़ी देर में बना लाएगा. वो छत पर कपडे सूखने चला गया.

अभी मैं सरिताजी से उनकी कुशलक्षेम पता कर ही रही थी की दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आयी. सरिता जी की बहु थी शायद. उसके साथ कोई सहेली भी थी. दोनों जोर जोर से बातें करती हुईं घर में घुसी थीं और मुझे लगा की शायद सास को देखने कमरे में आएगी ही. सरिताजी मुँह में थर्मामीटर लगाए बुखार चेक कर रही थीं तो वो भी आवाज़ नहीं दे पायीं.

उनकी बहु के सहेली ने कहा “यार फ्लैट में रहो कहाँ ये ऊपर नीचे के चक्कर लगा लगा के सारा दिन निढाल होती रहती हो?”

बहु ने जिसको शायद आइडिया भी नहीं था की सास जड़ी आके कमरे में हैं, तुरंत पलट के बोली “यार क्या बताऊँ, बहुत भारी गठुआ है हमारी सास के पास पर खर्चा करने को तैयार नहीं हैं. यही सड़ेंगी. क्या करूँ? इतनी कंजूस हैं की पूछो मत?”.

मुझको बहुत हैरानी हुयी की सरिताजी तो इतनी तारीफ करती थीं अपनी बहु की हमेशा. मैंने सरिताजी किणतर्फ देखा तो उन्होंने सर झुका लिया.

बहु ने शायद घर से कुछ लेना था जो वो लेके सहेली के साथ फ़ौरन बाहर चली गयी. दरवाज़ा स्वचालित लॉक वाला था तो शायद नौकरवको आवाज़ देने की जरुरत भी नहीं पड़ी.

अब जब वो चली गयी तो मैंने और सरिताजी ने एक असमंजस की स्तिथि में एक दूसरेको देखा. सरिताजी फीकी सी हंसी हंस के बोलीं “गठुआ सबको दीखता है तरुणा परन्तु गठुआ जोड़ा कैसा जाता है आजकल की लड़कियां सीखना ही नहीं चाह्ती हैं.”.

मैंने भी उनके दर्द को दिल से महसूस किया. मैंने कहा की आज का ज़माना और है. लोग कुछ जोड़ना कहाँ चाहते हैं?”.

सरिताजी की आँखों से आंसू बह निकले, बोलीं “हम सारी उम्र खाना देख के खाते रहे की ब्लाउज टाइट हो गए तो नए सिलाने पड़ेंगे. अमरीका इंग्लैंड कितनी बार गए पर साथ में न ज्यादा सामान लेके गए ना ही वहां के लिए कुछ नया खरीदा. अब आजकल के बच्चों को अपने फालतू खर्चे नहीं दीखते. बस माँ बाप सास ससुर का जोड़ा हुआ दीखता है.

मैं सर झुकाये सुनती रही. कितनी सच बात कह रही थीं, मेरे घर में खुद ही इतना उल्टा सीधा खर्चा होता रहता है की कभी बहुत गुस्सा आते हुए भी चुप रह जाना पड़ता है. बहु का तो क्या कहूँ? मेरी बिटिया का भी का भी खूब बुरा हाल है. शादी हुयी तो खूब समझाया की छह कली के पेटीकोट बनवा लेना ताकि आगे तक चलें पर सारे पेटीकोट फिगर के अनुसार बनवा के बैठ गयीं. दो साल बाद सारे पेटीकोट छोटे हो गए तो दुबारा बनवाने पड़े. हनीमून के लिए जो कपडे खरीदे वो संयुक्त घर में पहनने लायक नहीं थे तो कुछ महीने बाद इधर उधर दे दिए गए, शादी में जो मेकअप लिया गया वो भी कही सड़ ही रहा है. महंगा है तो कहीं दे नहीं सकती और ऑफिस में इतनी बिजी है की पार्टी मेकअप का टाइम नहीं है. जितने भारी लहंगे इंडो वेस्टर्न सूट साडी खरीदे सब ससुराल में एक बड़े बक्से में बंद कर दिए गए.वो अमरीका जाके क्या बसी की अब पीछे क्या छूटा कुछ याद नहीं.

रही बात पैसा जोड़ने की तो अब कहाँ घर में बने खाने की तरफ देखने की फुर्सत? सारा दिन यही ऑफर आते हैं की एक पिज़्ज़ा के साथ एक पिज़्ज़ा फ्री. कहीं न कहीं मेरी बहु भी दबी जबान में मुझको सुना चुकी है की लॉकर में सोना ऐसे ही पड़ा है तो क्यों न मैं एक डायमंड का सेट ले लून. पर उसकी खुद की एक अंगूठी का हीरा क्या निकला उसके भले से चाचा की दूकान की असलियत सामने आ गयी. पहले तो वो बोले की नया हीरा बहुत महंगा पड़ेगा तो बदल ही लो अंगूठी. फिर बोले की हीरा अलग मेटल अलग चलेगा. कच्चे के भाव जाएगी अंगूठी. अब व्ही अगर सोना होता तो क्या ऐसा होता? पर आजकल के बच्चे समझते कहाँ हैं?

गठुआ भारी जरूर होता है सासों के पास पर शायद उस गठुए को जोड़ने में कही न कहीं बहुत सारी इच्छाएं भी दबी कुचली होती हैं सासों की. वो शायद नहीं दीखती बहुओं को. खैर एक दिल की दबी हुयी सी बात थी, सरिताजी से गपशप करके मन हल्का सा हो गया आज.

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