अलीगढ बहुत याद आता है!



अलीगढ की सड़कें, बाजार, लोग और माहौल आज भी वैसा ही है जैसा मैं ग्यारह साल पहले छोड़ आयी थी. नोएडा शिफ्ट होते ही जैसे भूल गयी थी इस शहर को. पर अब साल में अगर एक बार जाना होता है तो शहर से बाहर निकलते ही दम निकलता है. यहाँ की यूनिवर्सिटी की सड़क हो या फिर घनी गलियां हो जहाँ की सड़कें हर वक़्त जाम रहती हैं. हर सड़क की अपनी ही खुशबु है. जो सालों गुजर जाने पे भी नहीं बदली है. खाना तो यहाँ ऐसा मिलता है की लखनऊ के कारीगरों को टक्कर देती मिठाईयां हों या फिर करीम दिल्ली वालों को चुनौती देती मट्टन रसेदार भरी कटोरी हो. अलीगढ बस अलीगढ ही है. छोटा है पर अपने आप को संभाले है. 

गर्मियों में आम के ठेले भरी सड़कें तो सुलगती अंगीठी पे सिकते भुट्टे हों यहाँ हर सुबह कचोरी, आलू की सब्ज़ी और सन्नाटे नाम से ख्यात पतला बूंदी का रायता हर सड़क पे बिकता मिल जायेगा. गुल्लू जी की गली तक पहुँच जाएँ आप तो अग्रवाल स्वीट्स की मिठाईओं के क्या कहने. बेसन के लड्डू हो या फिर चूरमे के लड्डू बस अंगुलिया चाटने पे मजबूर हो जायेंगे. वहीँ से थोड़ा आगे बढ़ेंगे तो एवन वालों की ताज़ी नमकीन की दूकान मन मोह लेती है. वहां की नमकीन खा के आपको पता चलेगा की बड़ी ब्रांड की नमकीन कितनी ख़राब होती है. नमकीन बंधवा के मैं हमेशा उपरकोट की दुकानों से बारीक सेवइयां जरूर लेती हूँ क्योंकि वहां तुरंत की बनी सेवइयां बहुत ही बढ़िया होती हैं. 

सिविल लाइन्स में स्टेट बैंक के सामने आलू टिक्की चाट और थोड़ा सा आगे जाने पे कुंजी लाल की बालूशाही हो या फिर विकास स्वीट्स की उम्दा मिठाईयां बस मन सा मोह लेती हैं. पर सुनार गली की शिब्बू की कचोरी का कोई मुकाबला ही नहीं. शाम को फूल चौराहे पे गणेश चाट वाले के जाके चाट और गोल गप्पे कहना तो बहुत ही प्रसिद्ध है. 

पर जिन लोगो को नॉन वेज खाना पसंद है उनके लिए तो आमिर निशा का मार्किट और रसलगंज का रास्ता स्वर्ग समान है. क्वालिटी की नॉन वेज थाली और चॉकलेट पेस्ट्री भी कम प्रसिद्ध नहीं है. वो मट्टन को या चिकन को मसाले में ही पकाते हैं. पैसा वसूल थाली उन्ही के यहाँ मिलती है. 

अलीगढ जाईये कभी, बहुत बढ़िया खाना मिलता है वहां.



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