My reading memoirs.

अपनी छोटी ताईजी के घर देखी थीं सबसे पहले वो सोवियत नारी की ग्लॉसी चमकीली बड़ी बड़ी मैगज़ीन्स. अक्सर उनके घर जाकर बंडल की बंडल पढ़ डालते थे. फिर हमारी बुआजी भी अक्सर इंडियन एयरलाइन्स और एयर इंडिया में मिलने वाली मैगज़ीन्स “स्वागत” दे जाया करती थीं. उत्कृष्ट हिंदी की लिए “सर्वोत्तम” (एक ज़माने में रीडर्स डाइजेस्ट का हिंदी संस्करण) भी बहुत अच्छी यादें दिए बैठा है. उसकी एक कहानी “गौरव का बोध” आज भी पलकें भिगो जाती है की कैसे एक अश्वेत बच्चा कसबे से शहर जाके बढ़िया नौकरी पा जाता है और अपनी माँ को कसबे का सबसे बढ़िया चूल्हा दिला क़े शहर वापस चला जाता है.

घर में मैगज़ीन्स की कोई कमी नहीं थी. पर असली चस्का तन लगा था जब एक बार मेरे पापा घर का सामान लेन बाजार गए और मुझको एक परचूनी की दूकान पे बिठा गए थे क्यूंकि वहां आवारा गाये बैल घूमते रहते थे. परचूनी वाले लालाजी ने उसी वक़्त एक कबाड़ी से ढेर सारी कॉमिक्स खरीदी थीं ताकि अपने खाली बैठे नौकर से लिफाफे बनवा सकें. अब तो खाली बैठे लड़के रौब से मोबाइल पे बतियाते हैं पर उस ज़माने में लिफाफे ही बनाया करते थे. मुझे छोटी बच्ची जानके लालाजी ने एक नंदन पत्रिका कार्टून देखने को पकड़ा दी.हमने पूरी श्रद्धा क़े साथ पांच मिनट में उस को मानो चाट क़े लालाजी को दे दिया. उन्होंने गपकुये सी आँखें फाड़ क़े पूछा “पढ़ ली पूरी?”.मैंने उनको पूरी नंदन की कहानियां बता दी. जब मेरे पापा मुझको वापस लेने आये तो आठ रुपए में खरीदी वो साड़ी कॉमिक्स लालाजी ने मुझको उपहार में दे डालीं.वो दिन भुलाये नहीं भूलता.

हमारे बचपन में किताबें किराये पर मिला करती थीं. सारे रिश्तेदारों क़े दिए पैसे इन्ही दुकानदारों की भेंट हो जाते थे. अब न वो दुकाने रहीं न उस तरह क़े चस्के रहे. हम तो अपनी स्कूल लाइब्रेरियन क़े भी दस काम दौड़ क़े क़े डालते थे ताकि जब भी दिद्दा का को कोई नया नॉवल आए तो वो हमको भी पढ़ने को दे दें.शिवानी नाम की उस बेहतरीन लेखिका क़े किस्से कहानियां पढ़ क़े फिर बस मिल्स एंड बून्स तक जो रोमांटिक सफर चला वो एक ना भूलने वाला ऐसा सफर था जिसने मन मस्तिष्क पर कई सपने बुने, मिटा डाले और फिर से नए उकेर दिए.

मेरी बड़ी बहन अपनी पढ़ाई की वजह से प्रतियोगिता दर्पण, इंडिया टुडे और हिंदुस्तान टाइम्स मंगवाती थीं.पापा हमेशा पंजाब केसरी अखबार पढ़ते थे, मम्मी की गर्मियां और खासकर सर्दियाँ बिना गृहशोभा और सरिता क़े नहीं गुजरती थी. नए नए डिजाइन क़े स्वेटर बनाये जाते थे नमूने देख कर.

धर्मयुग, कादम्बिनी और मनोहर कहानियां जरा बड़े होने पर हाथ में आयीं और स्टार डस्ट की एक प्रति लाने पर तो माँ ने बहुत डांटा था. देश क़े दिग्गज साहित्यकार ही लिख पाते थे धर्मयुग और कादम्बिनी जैसी पत्रिकाओं में. बहुत बाद में पाकिस्तानी लेखिका बुशरा रेहमान क़े नोवेल्स छपने लगे थे पंजाब केसरी में तो वहां का भी अंदाज़ा हुआ की कैसा रहन सहन होता है पाकिस्तान में. प्रेमचंद और गोर्की बहुत बाद में पढ़े थे हमने.

अब अपने बच्चों को विम्पी किड्ज़ डायरीज़ और हेर्री पॉटर क़े नोवेल्स का दीवाना हुआ देख बहुत मन किलसता है की क्यों न इन्हे भर भर क़े नंदन चम्पक दिलवा दिया करूँ पर यहाँ इतनी दूर भारत से ढोके लाना भी कम लहद नहीं है. बस मन किलस क़े रह जाता है. जब नंदन में मेरी पहली कहानी कहो राजा छपी थी तब गलती से जय प्रकाश भारती जी को भेज दी थी वो कहानी. बाद में उनका एक पोस्ट कार्ड आया था. “लिखती रही, अच्छा लिख लेती हो. कहाँ रहे अब वो पढ़ने वाले और लिखने वाले और पढ़कर तारीफ करने वाले? एक बोझ सा समझी जाने लगी है हिंदी लेखन की दुनिया.

One thought on “My reading memoirs.

  1. suman chandra says:

    sacchi , kya jamana tha, ek raat sapna aaya ki mujhe bhi ALLDIN is chiraj mil gaya hai , jin ne pucha kya hukum ha mere aaka, mene kaha randheer ki puri kitabo ki shop la de, jaha se me books kiray par lati thi……. hehehe means itna joonon tha comics ka

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