Shatranj ke khiladi (शतरंज के खिलाड़ी फ़िल्म रिव्यू)।

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शतरंज के खिलाड़ी
रिलीज़्ड – 1977
निर्देशक – सत्यजीत रे
कास्ट –
अमजद खान – नवाब वाजिद अली शाह
संजीव कुमार – नवाब सज्जाद ali
सईद जाफरी – नवाब रोशन अली
रिचर्ड एटेनबरो – जेनरल ऑट्रम
शबाना आज़मी – खर्शीद
फरीदा जलाल – उनका नाम नहीं याद
फार्रुख शेख – आबिद या अकील
डेविड अब्राहम – मुंशी नंदराम
टॉम ऑल्टर – कैप्टेन
लीला मिश्रा – हिरिया नौकरानी शबाना आजमी की
फिल्म के शूटिंग स्थल – लखनऊ मुरादाबाद
इस फिल्म की हैरानी वाली बातें –
१- सईद जाफरी ने लॉबिंग करके अमजद खान को मिलने वाला सहायक अभिनेता का पुरुस्कार हथिया लिया था। जिसके लिए अमजद खान कभी उन्हें माफ़ नहीं कर पाए।
२- इस फिल्म के एक सीन में सईद जाफरी संजीव कुमार पर गोली चलाते हैं और शाल फट जाता है। शाल किसी नवाब के पोते जोकि फैशन डिज़ाइनर था उस के प्राइवेट म्यूजियम से लिया गया था। तो वो सीन फिल्माने के लिए शाल के ऊपर हल्का सा पैच लगा के उसको उधड़ा हुआ दिखाया गया था।
३- शबाना आजमी को पतिव्रता और फरीदा जलाल को खिलंदड़ी पत्नी के रोल में दिखाने के लिए उनके पोशाकों के रंगो को चुना गया था। शबाना को पेस्टल गंभीर तो वहीँ फरीदा जलाल को चटख गुलाबी लाल कपडे पहनाएँ गए थे।
४- डेविड अब्राहम वाला सीन फिलमाया जा चूका था पर तभी सत्यजीत रे को टोपी पहनने का एक ढंग पता चला की किसी बाहर वाले के आने से घर की टोपी बदल कर दूसरी टोपी पहनी जाती थी तो इस सीन को दोबारा फिल्माया गया था।
५- इस फिल्म को लगभग सभी बड़े देशों में भारतीय दूतावासों द्वारा प्राइवेट स्क्रीनिंग के लिए चुना जा चुका है।
फिल्म के बारे में –
फिल्म अंग्रेजी सल्तनत और अवध के नवाब वाजिद अली शाह के बीच की राजनितिक कश्मकश से गुजरती है और दो रईस जादों के शतरंज के खेल के प्रति दीवानगी के बारे में है , ये फिल्म अमीर लोगों के बीच फैले अकेलेपन को इंगित करती है। उनको बस अपने से मतलब ह। एक की पत्नी शतरंज के पास उठा के फेंक देती है तो वो नीम्बू टमाटर सुपारी से खेलने लगते है। वहीँ दूसरे की बीवी अकेलेपन से उकता कर पति के भांजे से दिल लगा बैठती है। पकड़ी भी जाती है।
इस फिल्म को देखते हुए देश भक्त लोगो को अंग्रेज़ो की मक्कारी देखकर खून भी उबलता है और जब अमजद खान अपनी पगड़ी उतार का अंग्रेज़ जनरल को पेश करते हैं तो देशभक्त लोगों की आँखों से आंसू बह निकलते है।समझ नहीं आता की क्या कर बैठे? अमजद खान ने ये किरदार निभाया नहीं था, हर पल इसको जिया था। कहते हैं की उन्होंने कत्थक करने वालों की चाल देख कर उसको कॉपी किया फिर अपनी खड़े होने की और चलने की एक्टिंग की थी। वो कई सारे सीन्स में आपको साफ़ नजर आएगा ही।
ये फिल्म महान बंगाली निर्माता निर्देशक सत्यजीत रे ने बनाई थी और इस फिल्म में काम करने वाले लगभग सभी कलाकारों ने उनका नाम सुनकर लगभग मना कर दिया था। पर हर किरदार के लिए सत्यजीत रे ने जिसको भी सोचा था उसी को अच्छे से कन्विंस करके फिल्म में लेकर आये और शानदार अभिनय करवाया।
एक सीन है जिसमे शबाना आजमी अपनी नौकरानी को कहानी सुनाने के लिए कहती हैं और रो पड़ती है। वहां आपको एक महिला के एकाकीपन का अंदाजा अपने दिल में महसूस होगा वही हुक्का भरने के लिए संजीव कुमार का उठकर अपने शाल और पाजामे से संघर्ष करते हुए एक गांव के घर के अंदर जाना उस समय को जीने पर मजबूर करता है।
अटेंशन टू द डीटेल नाम की हर वो चीज़ है जो इस फिल्म को कालजई बना गई। पानदान के लड़िओं में गुंथे हुई पान की एक लॉन्ग वाली गिलौरियां हों या फिर मटके में आते कबाब रोटी। एक बंगाली फिल्म निर्देशक का लखनऊ के रंग में रंगकर अवध के इतिहास से जूझती फिल्म बनाना उनका बेबाक और संगठित निर्देशन की तरफ इशारा करता है।
असली अंग्रेज़ो से लदी फदी यह फिल्म एक बार अकेले में बैठकर देखिये। मुझे तो अब ऐसा लगता है की हमारे बच्चे उस स्वतंत्रता आंदोलन को समझ ही नहीं पाएंगे जोकि इन महान फिल्मों के जरिये हमने जिया है। पहले ये फिल्म बहुत अच्छी लगी फिर समझ आया की कितने आलसी राजाओं की वजह से हमपर हुकूमत कर गए ये अंग्रेज़।

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