Chipkali ki chatri 


माँ ने शाम के खाने के लिए आवाज़ लगायी तो सोचा मुँह हाथ धो के नीचे जाता हूँ. एयरपोर्ट से सीधा गांव आया था तो रस्ते में भी कहीं आराम नहीं किआ था. बहुत महीनो के बाद आना हुआ था. बाउजी के किर्याकर्म निपटाने के बाद अब मकान के हिस्से बंटवारे में नाम की रजिस्ट्री थी तो छोटे भाइयों ने फ़ोन करके तुरंत आने को कहा था.

हाथ मुँह धोके नीचे पहुंचा तो माँ गरम गरम फुल्के सेंक रही थी. चौके में ही दरी बिछी थी तो परोसी हुयी थाली के आगे यूँ ही बैठ गया की मेरी ही होगी. पर माँ ने झट से थाली हटा के दूसरी थाली मेरे आगे रख दी थी. मैंने मुँह उठा हैरानी से देखा तो वो हलके से मुस्कुरा के चुप हो गयीं. थाली में अरहर की दाल, फूलगोभी की तरी वाली सब्ज़ी, मूली का साग, सूजी का हलवा और दही बड़े थे. मन भर सा आया. अपने घर का खाना और वो भी माँ के हाथ का बना हुआ. गरम देसी घी से चुपड़ा हुआ मुलायम फुल्का हाथ में ले एक गस्सा तोडके मुँह में धरा ही था की माँ ने छोटे भाई के लड़के को आवाज़ लगायी “टीनू जाके छिपकली की छतरी पे पंडितजी को दे आ”. 

मैं स्तब्ध सा माँ को देखने लगा. माँ ने फीकी सी हंसी हंस के कहा “पिछले बरस सर्दियों में परलोक सिधार गयी तेरी सहेली” शायद आँखों में आंसू डबडबा आये थे तो मुँह चूल्हे की तरफ फेर लिया. बचपन से देखा था की जहाँ खाना खाते वक़्त बाउजी चार गलियां देते थे वो यूँ ही चूल्हे की तरफ मुंह घुमा लिया करती थी.

छिपकली मर गयी? मेरी बचपन की दोस्त थी क्योंकि जिस साल हम दोनों पैदा हुए थे उसके चार साल आगे तक गांव में और कोई बच्चा न हुआ था. वो गांव की लड़की गांव में ही पली बढ़ी और बाजु के कस्बे से बीए करके घर बैठ गयी थी.उसकी माँ को लगा की मैं शहर से इंजिनीरिंग करके अपने बाउजी का दिया वचन निभाउंगा और उसको ब्याह के ले जाऊंगा. पर मैं तो इतनी दूर निकल गया था की छिपकली की याद भी मन के किसी कोने से निकल गयी थी.पूनम नाम था उसका पर दुबली और सफ़ेद सी थी तो उसकी माँ दादी छिपकली नाम धर दिया था जो सारे गांव को उसके असल नाम पूनम से ज्यादा भला लगा था. 

अपने साथ की इंजीनयर से शादी करके बस गांव में सबसे मिलवाने ले आया था. मेरी दक्षिण भारतीय सांवली और भारी भरकम पत्नी की जीन्स और ऊँची हील के जूते मेरी माँ को समझ नहीं आये थे और मेरी पत्नी को मेरा ठेठ देहाती परिवार भी बेहद नागवार गुजरा था. सोचा था की कुछ दिन गुजारूंगा गांव में पर सब का व्यवहार देख सुबह की बस पकड़ वापस जाने की ठान ली थी मन में. कहीं न कहीं छिपकली को भी ना देख पाने की घुटन थी पर अपनी मनमर्जी की शादी करने का दिल में चोर सा था. पर रात ग्यारह बजे छत से नीचे पानी पीने जो उतरा तो जीने में किसी ने मेरा मुँह दबोचके रसोई की तरफ घसीट लिया. वो पतली सफ़ेद कलाइयां और हांफती हुयी ठंडी देह इतने नजदीक से देख मुझे तो सांप बिच्छू याद आ गए थे. पर वो बावरी गांव की लड़की बस यही कहके रो दी “काहे हमारी अम्मा से लड्डू मठरी लिए शहर गए हर साल अगर शादी नहीं करनी थी?” उसको सीने से लगाया की कुछ दिलासा दूंगा पर वो छिटक के आँगन की दीवार फांद के कहीं गायब हो गयी. चूड़ी टूट गयी थी शायद.

 सुबह माँ ने झाड़ू लगाते हुए हँसके ताना भी दे दिया था “मैंने और छिपकली ने साथ ही पहनी थी पिछले हफ्ते मेले में” बेटे की नयी दुल्हन के सामने कैसे कहतीं की कोई चुपके से रात बेटे को मिल के चली गयी. पर माँ के चेहरे पे संतुष्टि सी थी.फिर तो जब भी गाँव वापस आया यही सुना की छिपकली ने बीएड करके गांव में स्कूल खोल लिया है और उसके स्कूल को सरकारी मान्यता भी मिल गयी है. गांव में मंत्री या सरकारी अफसर आते हैं तो छिपकली को ही उनका स्वागत करना होता है.मैं कुढ़ के फिर उसको मिले बिना चला जाता था.

उधर मैं बैंगलोर से अमरीका चला गया था. दोनों पति पत्नी मिलके कमाते थे खाते थे. बच्चा नहीं हुआ कोई तो पत्नी के गांव से ही दो अनाथ बेटियां गोद ले ली थी. फिर एक बार आया तो माँ बहुत बीमार थी. छिपकली सेवा में लगी थी. छोटे दोनों भाई शहर में पढ़ रहे थे.जुलाई अगस्त की घनघोर बारिशों में बार बार गांव के सरकारी डॉक्टर के यहाँ चक्कर लगाते लगाते मुझको भी बहुत बुखार हो गया. ऐसे में एक रात कब में को छिपकली मेरे पास आके सो गयी पता नहीं चला. उसकी देह गंध मेरी अपनी थी, वो पतली कलाइयां और ठंडी कमर मेरी बस मेरी थी. कुछ पल को कुछ पता नहीं चला की वो कैसा मिलन था जो हुआ नहीं था पर होना ही चाहिए था. और आज हो ही गया.

मैं घबरा के अगले दिन सुबह के बस पकड़ दिल्ली आ गया और फिर एटलांटा जो आया तो फिर पलट के गांव नहीं गया. १ साल बाद बस माँ ने फोन पे सुना दिया था की छिपकली कहीं साल भर को स्कूल की ट्रेनिंग के लिए गयी थी और सहेली का बच्चा लेके वापस लौटी है. बिलकुल छिपकली की शक्ल है. बाप की शक्ल होता तो शायद नाक मोटी होती. मेरा मन कहीँ सहम सा गया था की क्या माँ को पता चल गया था? 

फिर बाउजी गुजरे तो मैं बस दो दिन को ही आ पाया था. प्रोजेक्ट चल रहा था और मुझको सीधा जापान जाना था. किसी ने भी छिपकली की बात भी नहीं की थी. मुझे लगा की सब बाउजी के गम में हैं. पर आज माँ ने कहा तो दिल बैठ गया. इतनी हिम्मत न हुयी की उस बच्चे के बारे में पूछ लूँ. पर माँ तो माँ होती है. उसको सबकुछ पता होता है. 
माँ ने धीरे से मन की गाँठ खोल दी “छिपकली के गोद लिए बेटे को उसके नाना ने शहर के स्कूल में दाखिला दिलाके पढ़ने भेज दिया है, अब वे तो रहे नहीं, तू चाहे तो सारे सरकारी काम निपटा के उसको गोद लेके साथ ले जा, उसका भला हो जायेगा”. मैंने मुँह नीचे करके “अच्छा” कह दिया. 

माँ गांव के कोने पे बनी छिपकली के दाह संस्कार की जगह बनी छतरी पे ले गयी मुझको. सफ़ेद संगमरमर की बनी छतरी पे एक पंडित ने दिया जलाके आले में रख दिया था.पास में एक मंदिर में सुन्दर काण्ड का पाठ हो रहा था. छिपकली गाँव में स्कूल खोलके अमर हो गयी थी. सब उसको मास्टरनी के नाम से जानते थे. माँ के लाये फूल चढ़ा जो घर के लिए चले तो अचानक मुझको वही खुशबु आयी जो उस रात सीढ़ी पे छिपकली के मेरा मुँह बंद करने पे आयी थी. कड़वे तेल से सनी हुयी चुटिया और गर्दन पे लगा टेलकम पाउडर. क्या वो मेरे आस पास थी? क्या उसको अच्छा लगा था की में यहाँ उसकी छत्तरी पे मिलने आया था? मन ही मन ठान लिया की अपने बेटे को ले ही जाऊंगा अपने साथ. 

इतना वक़्त विदेश में दिया पर कोई जानता तक नहीं मुझको पर स्कूल की मास्टरनी बन वो कितनी इज्जत कमा गयी थी. 

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