What is happening in India? 

त्योहारों  को साथ मिलके बैठके मनाने की जगह बाजार में घूमने से जोड़ दिया गया है. ऑनलाइन शॉपिंग का तुर्राह ये हो गया है की हर हफ्ते कपडे खरीदना जरुरी, हर नया टीवी खरीदना ऑक्सीजन समान और नए से नए मोबाइल को हाथ में सजाना मानो प्राण वापस मिल गए हों. 

पुराने ज़माने में कहते थे की मोटा अनाज खाओ, मोटा कपडा पहनो, कम नहाओ, कम खर्चा करो. उनको सब गंवार बोलते हैं. पर जब वारेन बुफ्फेट मशहूर शेयर निवेशक यही बातें अपने भाषण में बोल देते हैं तो हमारे प्रकांड पंडित माने जाने वाले प्रसिद्ध मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट उनके भाषणों के ऊपर रिसर्च चालू कर देते हैं. 

घूम फिर के चीन और अमरीका के रिसर्च स्कॉलर्स भी भारतीय पुरातन आदतों को सही बता रहे हैं जिन पर वहां के जाने माने अभिनेता और उद्योगपति अमल भी करते हैं जैसे की वोह लोग बाज़ार या फिर होटलों का खाना नहीं खाते, हफ्ते में कुछ ही दिन सर व् कपडे धोते हैं, बेहद कम कपडे खरीदते हैं, सिर्फ सूत (लिनन) के बने कपडे पेहेन रहे हैं, बच्चों को डायपर की जगह सूती नेप्पियाँ पहना रहे हैं. पर हमारे बाजार बढ़ते जा रहे हैं, घर का खाना बेकार लगता है पर बाजार में मिल रहे मिलावटी खाने से पेट भरना ऊँचे स्तर की बात लगती है. 

कपड़ों का इतना बड़ा बाजार हो गया है की लगता है भारत में लोग सिर्फ कपडा खरीदने को कमा रहे हैं. हमें इतने ज्यादा कपड़ों का करना क्या होता है? क्या हर घर में इतने बेहिसाब कपड़ों को रखने की जगह होती है? क्या हम नियमित रूप से इस्तेमाल न किये गए कपडे दान कर पाते हैं? 

क्या हम अपनी जिंदगी साल में एक बार ख़रीदे हुए कपड़ो से नहीं चला सकते? क्या हर त्योहार पर बेहिसाब खर्चा करे बिना हम उसे सादगी से नहीं मन सकते? 

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